राजस्थान की मरुभूमि फसल उत्पादन के लिहाज से भले ही बंजर मानी जाती है, लेकिन इसकी पहचान वीरों के लिए उर्वर धरती की भी रही है। इतिहास प्रसिद्ध अनेक योद्धाओं ने इसी भूमि पर जन्म लिया और मातृभूमि की रक्षा करते हुए बलिदान हो गये। ऐसे ही वीरों में एक थे कल्ला जी राठौड़। अपने समय के विलक्षण लड़ाके कल्ला जी की छवि लोक-देवता की है। कहा जाता है कि उन्होंने मुगलों की सेना से युद्ध के दौरान लाशों का अंबार लगा दिया था और तलवार लगने से गला कटकर अलग हो जाने के बावजूद उनके धड़ ने भी काफी देर तक शत्रु सेना का मुकाबला किया था।
राजस्थान के मेड़ता में आश्विन महीने में 1544 को राव आसासिंह के घर जन्म लेने वाले कल्ला जी एक ऐसे महामानव थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में जहां हथियारों के संचालन में दुश्मनों को अपना लोहा मनवाया, वहीं औषधिशास्त्र में निपुणता हासिल कर दीन-दुखियों की सेवा की। मेड़ता के राव जयमल इनके ताऊ थे और मीराबाई इनकी बुआ थीं। बाल्यकाल में ही कल्ला जी ने प्रसिद्ध योगी भैरवनाथ से योग और औषधि विज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त किया।
कल्ला जी राठौड़ जब महज 22 साल के थे तभी दिल्ली के बादशाह अकबर ने चित्तौड़ पर अपना कब्जा बनाने के इरादे से पहले मेड़ता पर हमला किया। इस युद्ध में ताऊ राव जयमल और पिता आसासिंह के सात कल्ला जी ने जमकर दुश्मनों का सामना किया, लेकिन विशाल मुगल सेना के सामने मेड़ता की सेना लंबे समय तक टिक नहीं सकी। तेरह दिन के युद्ध के बाद ही राव जयमल को अहसास हो गया कि विशाल मुगल सेना का सामना कर पाना अकेले मेड़ता की सेना के लिए संभव नहीं है। इसके बाद राव जयमल और उनके सभी संगी-साथी रात के अंधेरे में ही पूरे परिवार के साथ वहां से निकलकर चित्तौड़ पहुंच गये। चित्तौड़ में राणा उदय सिंह ने इन्हें राजपूत सेना को सशक्त बनाने का काम सौंपा, क्योंकि उन्हें पता चल चुका था कि अकबर की नजर सिर्फ मेड़ता पर ही नहीं, बल्कि पूरे राजपूताने पर टिकी हुई है और मुगल सेना कभी भी पूरे राजपूताने को आक्रांत करने की कोशिश कर सकती है।
सैन्य संगठन के काम को पूरी तरह से निपटा लेने के बाद उदय सिंह ने राव जयमल को बदनौर की जागीर देकर वहीं सेना में नये लोगों को शामिल करने और उन्हें प्रशिक्षण देने का काम सौंपा। जबकि कल्ला जी को गुजरात की सीमा के पास रणढालपुर की जागीर देकर पूरे सीमा क्षेत्र की रक्षा का काम सौंप दिया। रणढालपुर में कल्ला जी भी नयी सैन्य टुकड़ियां तैयार करने के काम में जुट गये। इसके साथ ही उन्होंने गुजरात से कुशल कारीगरों को बुलवाकर तलवार और भाले का निर्माण कार्य भी शुरू करवा दिया। कहते हैं कि सिर्फ चार महीने में ही रणढालपुर की सिंह गढ़ी में तलवार और भालों का इतना बड़ा भंडार इकट्ठा हो गया, जिससे कि सेना कम से कम तीन वर्षों तक युद्ध कर सकती थी।
रणढालपुर में रहकर वहां की व्यवस्था संभालते समय ही ताऊ राव जयमल और पिता आसासिंह ने कल्ला जी का विवाह तय कर दिया। शिवगढ़ के राव कृष्णदास ने अपनी पुत्री कृष्णा के लिए उनका चयन किया था। विवाह के लिए जब कल्ला जी बारात के साथ शिवगढ़ पहुंचे और वहां द्वाराचार की रस्म के दौरान उनकी सास आरती उतार रही थीं, तभी चित्तौड़ से राणा उदयसिंह की ओर से भेजा गया हरकारा युद्ध-संदेश लेकर वहां पहुंचा। इस संदेश में राणा ने चित्तौड़ पर अकबर के हमले की जानकारी दी थी और राव जयमल के साथ आसासिंह को वैवाहिक औपचारिकता पूर्ण कर जल्द ही सैन्य टुकड़ी के साथ चित्तौड़ आने के लिए कहा था।
संदेश में राणा उदय सिंह ने यद्यपि कल्ला जी के लिए साफ कहा था कि उन्हें विवाह छोड़कर युद्ध में शामिल होने की जरूरत नहीं है, लेकिन विधर्मियों के आक्रमण की खबर सुनकर भला कल्ला जी कहां रुकने वाले थे। इधर विवाह की सारी रस्में पूरी हुई और उसके तुरंत बाद कल्ला जी ने अपनी नवविवाहिता कृष्णा से रणक्षेत्र में जाने की अनुमति मांगी। युद्ध की खबर से शिवगढ़ में मातम का माहौल बना हुआ था, सास-ससुर समेत सभी संबंधियों ने कल्ला जी को रोकने की भी कोशिश की, लेकिन क्षत्राणी कृष्णा ने खुद आगे बढ़कर कल्ला जी का तिलक किया और हाथ में तलवार थमाकर उन्हें रणक्षेत्र के लिए विदा किया। कल्ला जी राव जयमल और पिता आसा सिंह के साथ अपने सैनिकों तथा नये बने हथियार लेकर चित्तौड़ पहुंच गये, जहां राणा उदय सिंह ने राव जयमल को अपना सेनापति नियुक्त किया। अकबर की विशाल मुगल सेना ने चित्तौड़ को चारों ओर से घेर लिया था, जबकि चित्तौड़ के पास मुट्ठीभर सेनानी ही थे। ऐसे में ये राजपूत वीर किले से अचानक निकलकर शत्रु सेना पर हमला करते और शत्रुओं को भारी हानि पहुंचा थोड़ी ही देर में वापस किले में आ जाते थे।
कई दिनों तक चले इस छापामार संघर्ष के बाद धीरे-धीरे मेवाड़ी वीरों की संख्या भी घटते घटते बहुत कम रह गयी, तो सेनापति जयमल ने अन्तिम संघर्ष के लिए सभी सैनिकों को केसरिया बाना पहनने का निर्देश दिया। संदेश स्पष्ट था कि अब युद्ध के लिए किले से निकलने के बाद जीवित तभी वापसी होगी, जबकि शत्रु सेना पर विजय मिल जायेगी। अगर शत्रु सेना को परास्त नहीं कर सके, तो सभी वीर रणभूमि में ही अपने जीवन का उत्सर्ग कर देंगे। शत्रु सेना की विशालता को देखते हुए सबको पता था कि इस आखिरी रण में किसी भी मेवाड़ी वीर का लौट पाना असंभव है। इसीलए 23 फरवरी 1568 की रात किले में मौजूद सभी क्षत्राणियों ने जौहर किया और अगले दिन 24 फरवरी को राजपूत वीर किले का दरवाजा खोलकर सिंह की तरह मुगल सेना पर टूट पड़े और थोड़ी ही देर में लाशों के ढेर लगने लगे।। भीषण युद्ध होने लगा।
युद्ध के बीच ही राव जयमल की जांघ में शत्रुसेना की ओर से चलायी गयी गोली लग गयी, जिससे वे चलने-फिरने में लाचार हो गये। लेकिन उनके मन में तब भी मुगलों के दांत खट्टे करने इच्छा थी। लिहाजा उन्होंने कल्ला जी को आवाज दिया। ताऊ की आवाज सुनते ही कल्ली जी ने तुरंत ही उनके दोनों हाथ में तलवार थमा दिया और उनको अपने कंधे पर बिठा लिया। इसके बाद खुद भी अपने दोनों हाथ में तलवार लेकर ताऊ-भतीजा दोनों मुगल सेना पर पिल पड़े। इन दोनों के हाथ में थमी चारों तलवारें बिजली की गति से चलने लगीं। मुगल सैनिकों की लाश से धरती पट गयी। अकबर ने जब यह दृश्य देखा, तो उसे लगा कि दो सिर और चार हाथ वाला कोई देवता राजपूतों की ओर से युद्ध करने उतर आया है। उसी वक्त उसने कल्ला जी के लिए ‘चतुष्हस्त देव’ का संबोधन दिया और अपने सैनिकों को कल्ला जी पर टूट पड़ने का आदेश दिया। युद्ध के दौरान राव जयमल और कल्ला जी बुरी तरह से जख्मी हो गये थे और राव जयमल के हाथ शिथिल पड़ने लगे थे। ऐसे में कल्ला जी ने ताऊ राव जयमल को नीचे उतारकर उनकी चिकित्सा करनी चाही, पर तभी एक शत्रु सैनिक ने पीछे से हमला कर उनका सिर काट दिया। कहते हैं कि सिर कटने के बाद के बाद भी उनका धड़ बहुत देर तक मुगल सेना के साथ युद्ध करता रहा। इस युद्ध के बाद ही कल्ला जी का दो सिर और चार हाथ वाला रूप लोकप्रिय हो गया और आज भी लोकदेवता के रूप में चित्तौड़गढ़ में भैंरोपाल पर उनकी छतरी बनी हुई है।